Friday, June 23, 2006

परिचय













शास्त्री` नित्यगोपाल कटारे
जन्म : २६ मार्च १९५५ ई०(चैत्र शुक्ल तृतीया संवत २०१२)
जन्म स्थान : ग्राम टेकापार (गाडरवारा) जि० नरसिंहपुर (म.प्र.)
आत्मज : स्व० श्री रामचरण लाल कटारे
शिक्षा : वाराणसेय संस्कृत विश्व विद्यालय वाराणसी से व्याकरण 'शास्त्री` उपाधि; संस्कृत भूषण; संगीत विशारद।
प्रकाशन : विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य लेख, कविता, नाटक आदि का हिन्दी एवं संस्कृत भाषा में अनवरत प्रकाशन।
प्रसारण : आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के विभिन्न केन्द्रों से संस्कृत एवं हिन्दी कविताओं का प्रसारण।
कृतियाँ : पञ्चगव्यम् (संस्कृत कविता संग्रह)
विपन्नबुद्धि उवाच (हिन्दी कविता संग्रह)
नेता महाभारतम् (संस्कृत व्यंग्य काव्य)
नालायक होने का सुख ( व्यंग्य संग्रह )
विशेष : हिन्दी एवं संस्कृत भाषा के अनेक स्तरीय साहित्यिक कार्यक्रमों का संचालन एवं काव्य पाठ । पन्द्रह साहित्यिक पुस्तकों का संपादन।
सम्प्रति : अध्यापन; महासचिव शिव संकल्प साहित्य परिषद्, नर्मदापुरम् एवं मार्गदर्शक 'प्रखर` साहित्य संगीत संस्था भोपाल।
संपर्क : ई०डब्ल्यू एस०-६०हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी होशंगाबाद पिन-४६१००(म०प्र०)
दूरभाष- 07574-257338
e-mail- katare_nityagopal@yahoo.co.in

सौन्दर्यँ दशर्नम्

वैभवं कामये न धनं कामये
केवलं कामिनी दर्शनं कामये
सृष्टि कार्येण तुष्टोस्म्यहं यद्यपि
चापि सौन्दर्य संवर्धनं कामये।

रेलयाने स्थिता उच्च शयनासने
मुक्त केशांगना अस्त व्यस्तासने
शोभिता तत्र सर्वांग आन्दोलिता
अनवरत यान परिचालनं कामये।

श्रूयताम्
सैव मिलिता सड़क परिवहन वाहने

पंक्ति बद्धाः वयं यात्रि संमर्दने

मम समक्षे स्थिता श्रोणि वक्षोन्नता

अप्रयासांग स्पर्शनं कामये।


श्रूयताम्

सैव दृष्टा मया अद्य नद्यास्तटे

सा जलान्निर्गता भाति क्लेदित पटे

दृश्यते यादृशा शाटिकालिंगिता

तादृशम् एव आलिंगनं कामये।


श्रूयताम्

एकदा मध्य नगरे स्थिते उपवने

अर्धकेशामपश्यम् लता मण्डपे

आंग्ल श्वानेन सह खेलयन्ती तदा

अहमपि श्वानवत् क्रीडनं कामये।


श्रूयताम्

नित्य पश्याम्यहं हाटके परिभ्रमन्ती

लिपिष्टकाधरोष्ठी कटाक्ष चालयन्ती

मनोहारिणीं मारुति गामिनीम्

अंग प्रत्यंग आघातनं कामये।


श्रूयताम्

स्कूटी यानेन गच्छति स्वकार्यालयं

अस्ति मार्गे वृहद् गत्यवरोधक

दृश्यते कूर्दयन् वक्ष पक्षी द्वयं

पथिषु सर्वत्र अवरोधकम् कामये।

: शास्त्री नित्यगोपाल कटारे :


प्रथमपतिगृहानुभवम्

प्रथमपतिगृहानुभवम्
श्रूयताम्
हे सखि पतिगृहगमनंप्रथमसुखदमपि
किंत्वतिक्लिष्टं री।
परितो नूतन वातावरणेवासम्
कार्यविशिष्टं री।।
श्रूयताम्
वदने सति अवरुद्धति कण्ठं
दिवसे अवगुण्ठनमाकण्ठं।
केवलमार्य त्यक्त्वा तत्र किंञ्चिदपि
मया न दृष्टं री।।
श्रूयताम्
वंश पुरातन प्रथानुसरणं
नित्यं मर्यादितमाचरणं।
परिजन सकल भिन्न निर्देश पालने
प्रभवति कष्टं री।।
श्रूयताम्
भर्तुर्पितरौ भगिनी भ्राता
खलु प्रत्येकः क्लेश विधाता।
सहसा प्रियतममुखं विलोक्य

तु सर्वं कष्ट विनिष्टं री।।

श्रूयताम्
अभवत् कठिनं दिवावसानम्

बहु प्रतीक्षितं रजन्यागमनम्।
लज्जया किञ्च कथं कथयानि विशिष्ट
प्रणयपरिशिष्टं री।।

:: नित्यगोपाल कटारे ::

Thursday, June 22, 2006

गजगामिनि़

गच्छसि कुत्र अरी गजगामिनि़ ।
हँससि किमर्थं त्वं माम्दृष्ट्वा ,
तिष्ठ क्षणं हे कामिनि।

मार्गे चलसि सर्वतः पश्यसि , हे घनविद्युद्दामिनि।
खण्ड-खण्डितं पण्डित हृदयं मममन-अन्तर्यामिनि।।
गच्छसि कुत्र अरी गजगामिनि़ ।

स्वात्मानं पश्यन्त्यादर्शे ,लज्जास्मित-गौरांगिनि।
अधोमुखी विलोकयसि धरणीं ,निजस्वरूप-अभिमानिनि।।
गच्छसि कुत्र अरी गजगामिनि़ ।

कथयसि कथं न किं कामयसे, हे भावी-गृहस्वामिनि।
शीघ्रं कुरु हर मम परितापं ,कामज्वर-अपहारिणि।।
गच्छसि कुत्र अरी गजगामिनि़ ।

हे लघु वस्त्रे हे नयनास्त्रे ,हे मम मनोविलासिनि।
मा कुरु वक्र-दृष्टि-प्रक्षेपंभो भो मारुति-वाहिनि।।
गच्छसि कुत्र अरी गजगामिनि़ ।

संस्कृत-लोकगीतम्।

संस्कृत-लोकगीतम्।


श्रूयताम्
प्रेषितं न किञ्चित् सन्देशम्
हा गतः प्रियतमः विदेशम्।।

खण्डितं तु सप्तपञ्च वचनानुबन्धं
कस्यचिदागच्छति षडयन्त्रस्यगन्धं।
दृश्यते ह्रदि अपरा प्रवेशम् ।
हा गतः प्रियतमः विदेशम्।।

रोचते न तेन बिना शुष्क शुष्क दिवसः
निशा भवति भयावहा क्रमश;क्रमशः
कष्टकरं सर्वं परिवेशम्।

हा गतः प्रियतमः विदेशम्।।



श्रूयताम्

श्रूयते तु अहर्निशं स्वासुः अपशब्दं

दैनिकोपियोगि वस्तु अस्ति नोपलब्धं
रोचते न स्वशुरोपदेशम् ।
हा गतः प्रियतमः विदेशम्।।

वैरी प्रत्यागतॊ न भवति एक-मासः
आगतं न पत्रं न कृतं दूरभाषः
प्रेषितं च नैव धनादेशम्।
हा गतः प्रियतमः विदेशम्।।

न जानेप्यहं तेन त्यक्ता किमर्थम्
अधुनाहं थकितास्मि पथ दर्शं-दर्शं
किमर्थं ददाति ह्रदय क्लेशम्।
हा गतः प्रियतमः विदेशम्।।

नर्मदा स्तुतिः



श्रूयताम्

आगच्छन्तु नर्मदा तीरे।

कलकल कलिलं प्रवहति सलिलं
कुरु आचमनं सुधी रे।

दृष्टा तट सौन्दर्यमनुपमं अवगाहन्तु सुनीरे
सद्यः स्नात्वा जलं पिबन्तु वसति न रोगः शरीरे।।
आगच्छन्तु नर्मदा तीरे।

मन्त्रोच्चरितं ज्वलितं दीपं घण्टा ध्वनि प्राचीरे।
मुनि तपलग्नाः ध्यान निमग्नाः उत्तर दक्षिण तीरे।।
आगच्छन्तु नर्मदा तीरे।



श्रूयताम्

बालः पीनः कटि कोपीनः जलयुत्पतति गंभीरे।

जल यानान्युद्दोलयन्त्युपरि चपले चलित समीरे।।
आगच्छन्तु नर्मदा तीरे।

गुरुकुल बालाः पठन्ति वेदान् एकस्वरे गंभीरे।
रक्षयन्ति नः संस्कृतिमार्यम् निवसन्तस्तु कुटीरे।।
आगच्छन्तु नर्मदा तीरे।

शास्त्री नित्यगोपाल कटारे

संस्कृत भाषा के रहस्य

संस्कृत भाषा के रहस्य
योग का व्यावहारिक रूप है संस्कृत भाषा - शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
दुनिया की पहली पुस्तक की भाषा होने के कारण संस्कृत भाषा को विश्व की प्रथम भाषा मानने में कहीं कोई संशय की गुंजाइश नहीं हैं। इसके सुस्पष्ट व्याकरण और वर्णमाला की वैज्ञानिकता के कारण सर्वश्रेष्ठता भी स्वयं सिध्द है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण साहित्य की धनी हाने से इसकी महत्ता भी निर्विवाद है। इतना सब होने के बाद भी बहुत कम लोग ही जानते है कि संस्कृत भाषा अन्य भाषाओ की तरह केवल अभिव्यक्ति का साधन मात्र ही नहीं है; अपितु वह मनुष्य के सर्वाधिक संपूर्ण विकास की कुंजी भी है। इस रहस्य को जानने वाले मनीषियों ने प्राचीन काल से ही संस्कृत को देव भाषा और अम्रतवाणी के नाम से परिभाषित किया है। संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं वल्कि संस्कारित भाषा है इसीलिए इसका नाम संस्कृत है। संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद् नहीं वल्कि महर्षि पाणिनि; महर्षि कात्यायिनि और योग शास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं। इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को भाषा में समाविष्ट किया है। यही इस भाषा का रहस्य है ।
जिस प्रकार साधारण पकी हुई दाल को शुध्द घी में जीरा; मैथी; लहसुन; और हींग का तड़का लगाया जाता है;तो उसे संस्कारित दाल कहते हैं। घी ; जीरा; लहसुन, मैथी ; हींग आदि सभी महत्वपूर्ण औषधियाँ हैं। ये शरीर के तमाम विकारों को दूर करके पाचन संस्थान को दुरुस्त करती है।दाल खाने वाले व्यक्ति को यह पता ही नहीं चलता कि वह कोई कटु औषधि भी खा रहा है; और अनायास ही आनन्द के साथ दाल खाते-खाते इन औषधियों का लाभ ले लेता है। ठीक यही बात संस्कारित भाषा संस्कृत के साथ सटीक बैठती है।जो भेद साधारण दाल और संस्कारित दाल में होता है ;वैसा ही भेद अन्य भाषाओं और संस्कृत भाषा के बीच है। संस्कृत भाषा में वे औषधीय तत्व क्या है ? यह जानने के लिए विश्व की तमाम भाषाओं से संस्कृत भाषा का तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है।संस्कृत में निम्नलिखित चार विशेषताएँ हैं जो उसे अन्य सभी भाषाओं से उत्कृष्ट और विशिष्ट बनाती हैं।१ अनुस्वार (अं ) और विसर्ग(अ:) सेस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण और लाभ दायक व्यवस्था है, अनुस्वार और विसर्ग। पुल्लिंग के अधिकांश शब्द विसर्गान्त होते हैं —यथा- राम: बालक: हरि: भानु: आदि।औरनपुंसक लिंग के अधिकांश शब्द अनुस्वारान्त होते हैं—यथा-जलं, मन्दिरं, फलं आदि।अब जरा ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है। अर्थात् जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है। जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं, वे केवल संस्कृत के विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं।उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है । भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भौंरे की तरह गुंजन करना होता है, और अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है। अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा , उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जावेगा। कपालभाति और भ्रामरी प्राणायामों से क्या लाभ है? यह बताने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि स्वामी रामदेव जी जैसे संतों ने सिद्ध करके सभी को बता दिया है। मैं तो कवल यह बताना चाहता हूँ कि संस्कृत बोलने मात्र से उक्त प्राणायाम अपने आप होते रहते हैं। जैसे हिन्दी का एक वाक्य लें- '' राम फल खाता है``इसको संस्कृत में बोला जायेगा- '' राम: फलं खादति" राम फल खाता है ,यह कहने से काम तो चल जायेगा ,किन्तु राम: फलं खादति कहने से अनुस्वार और विसर्ग रूपी दो प्राणायाम हो रहे हैं। यही संस्कृत भाषा का रहस्य है। संस्कृत भाषा में एक भी वाक्य ऐसा नहीं होता जिसमें अनुस्वार और विसर्ग न हों। अत: कहा जा सकता है कि संस्कृत बोलना अर्थात् चलते फिरते योग साधना करना।
२- शब्द-रूप
संस्कृत की दूसरी विशेषता है शब्द रूप। विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक ही रूप होता है,जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 25 रूप होते हैं। जैसे राम शब्द के निम्नानुसार 25 रूप बनते हैं। यथा:- रम् (मूल धातु)
राम: रामौ रामा:
रामं रामौ रामान्
रामेण रामाभ्यां रामै:
रामाय रामाभ्यां रामेभ्य:
रामात् रामाभ्यां रामेभ्य:
रामस्य रामयो: रामाणां
रामे रामयो: रामेषु
हे राम! हेरामौ! हे रामा:!
ये 25 रूप सांख्य दर्शन के 25 तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिस प्रकार पच्चीस तत्वों के ज्ञान से समस्त सृष्टि का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वैसे ही संस्कृत के पच्चीस रूपों का प्रयोग करने से आत्म साक्षात्कार हो जाता है। और इन 25 तत्वों की शक्तियाँ संस्कृतज्ञ को प्राप्त होने लगती है।सांख्य दर्शन के 25 तत्व निम्नानुसार हैं।-
आत्मा (पुरुष)
(अंत:करण 4 ) मन बुद्धि चित्त अहंकार
(ज्ञानेन्द्रियाँ 5) नासिका जिह्वा नेत्र त्वचा कर्ण
(कर्मेन्द्रियाँ 5) पाद हस्त उपस्थ पायु वाक्
(तन्मात्रायें 5) गन्ध रस रूप स्पर्श शब्द
( महाभूत 5) पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश
३- द्विवचन संस्कृत भाषा की तीसरी विशेषता है द्विवचन। सभी भाषाओं में एक वचन और बहु वचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है। इस द्विवचन पर ध्यान दें तो पायेंगे कि यह द्विवचन बहुत ही उपयागी और लाभप्रद है।जैसे :- राम शब्द के द्विवचन में निम्न रूप बनते हैं:- रामौ , रामाभ्यां और रामयो:। इन तीनों शब्दों के उच्चारण करने से योग के क्रमश: मूलबन्ध ,उड्डियान बन्ध और जालन्धर बन्ध लगते हैं, जो योग की बहुत ही महत्वपूर्ण क्रियायें हैं।
४ सन्धि
संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि। ये संस्कृत में जब दो शब्द पास में आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है। उस बदले हुए उच्चारण में जिह्वा आदि को कुछ विशेष प्रयत्न करना पड़ता है।ऐंसे सभी प्रयत्न एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति के प्रयोग हैं।''इति अहं जानामि" इस वाक्य को चार प्रकार से बोला जा सकता है, और हर प्रकार के उच्चारण में वाक् इन्द्रिय को विशेष प्रयत्न करना होता है।यथा:- १ इत्यहं जानामि।२ अहमिति जानामि।३ जानाम्यहमिति ।४ जानामीत्यहम्।इन सभी उच्चारणों में विशेष आभ्यंतर प्रयत्न होने से एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति का सीधा प्रयोग अनायास ही हो जाता है। जिसके फल स्वरूप मन बुद्धि सहित समस्त शरीर पूर्ण स्वस्थ एवं नीरोग हो जाता है।इन समस्त तथ्यों से सिद्ध होता है कि संस्कृत भाषा केवल विचारों के आदान-प्रदान की भाषा ही नहीं ,अपितु मनुष्य के सम्पूर्ण विकास की कुंजी है। यह वह भाषा है, जिसके उच्चारण करने मात्र से व्यक्ति का कल्याण हो सकता है। इसीलिए इसे देवभाषा और अमृतवाणी कहते हैं।
(-शास्त्री नित्यगोपाल कटारे)

Wednesday, June 21, 2006

aao Sanskrit Seekhen

आप कया लिखना चाहते है.